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देश में सोना खूब खरीदा जा रहा है, और बिक्री इतनी बढ़ गई है कि

सोने की दोगुनी खरीद का माजरा क्या है – देश में सोना खूब खरीदा जा रहा है, और बिक्री इतनी बढ़ गई है कि पिछले महीने दोगुने से भी ज़्यादा सोना विदेश से भारत में आया. यह सामान्य घटना नहीं है, लेकिन मीडिया में इस ख़बर का विश्लेषण ज्य़ादा नहीं दिखा. क्या इस घटना का आगा-पीछा नहीं देखा जाना चाहिए…?

सोना किसके लिए है सुरक्षित स्वर्ग —वैसे व्यापार जगत में यह मुहावरा खुलकर अपना अर्थ बताता नहीं है. हमेशा से ही निवेश के लिए ज़मीन-जायदाद के बाद सोने को ही सबसे सुरक्षित माना जाता है. अपने देश में हमेशा से सोने की खूब खपत रही है, लेकिन देश में सोने का उत्पादन या खनन लगभग शून्य है. निवेश ही नहीं, भारतीय सामाजिक परंपरा के मुताबिक शादी-ब्याह की रस्मों में गहनों के आदान-प्रदान के लिए सोना लगता है. लेकिन सोने की खपत की एक निश्चित मात्रा है. वह खपत भी शादी-ब्याह के मौसम में ही बढ़ती है. लेकिन इस बार बेमौके ही सोने की खपत बढ़ने लगी, और इतनी कि एक महीने में दोगुनी हो गई. सवा साल में इतनी ज़्यादा खपत का कोई रिकॉर्ड नहीं है. इससे अंदाज़ा यही लगता है कि सोने में निवेश या धन को सुरक्षित रूप में रखने के लिए सोने का इस्तेमाल हो रहा होगा.

रुपये की कीमत और सोना — इस समय कुछ विश्लेषक बता रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में रुपये की दुर्गति करने वाला एक खलनायक सोना भी है. कैसे है, यह ज़्यादा नहीं बताया जाता. हो यह भी सकता है कि रुपये की बदहाली करने वाला खलनायक कोई और हो और सोने का नाम लगाने की कोशिश हो. और हो यह भी सकता है कि दूसरे कई कारणों के साथ सोने के ताबड़तोड़ आयात ने भी अपनी भूमिका निभाई हो.

बहुमूल्य धातुओं में सोना और चांदी —गौरतलब है कि सोने के अलावा दूसरी बहुमूल्य धातु चांदी की खपत दूसरे कई उत्पाद बनाने में भी होती है. औद्योगिक विकास की सूरत में चांदी की खपत बढ़ने का फिर भी कोई तर्क बन सकता है, जबकि सोना सिर्फ आभूषण और निवेश के रूप में खरीदकर रखने के काम आता है. इस समय सोने के दाम की बजाय चादी के भाव ज़्यादा घटाव पर हैं. आखिर यह माजरा क्या है…? अनुमान यही लगता है कि देश में निवेश के लिए सोने को सबसे ज़्यादा सुरक्षित स्वर्ग माना जा रहा हो.

शेयर बाज़ार से सोने का रिश्ता — वैसे तो बाज़ार विश्लेषक यह आज़ादी लिए हुए हैं कि बाज़ार में किसी चीज़ के दाम में उतार-चढ़ाव का जब चाहे, जो कारण बता दें. लेकिन आमतौर पर वे यही बताते आए हैं कि अगर शेयर बाज़ार ठंडा पड़ रहा हो, तो सोना गर्म हो जाता है. यानी जिनके पास अतिरिक्त धन है, वे शेयरों की बजाय सोने में निवेश करने लगते हैं. लेकिन इस समय तो यह संबंध भी साबित नहीं हो पा रहा है. महीने, दो महीने से शेयर बाज़ार में बहार सी आई हुई थी. सोने में निवेश घटना चाहिए था. लिहाज़ा एक बार फिर यही गुत्थी बनती है कि सोने में निवेश की बढ़ती प्रवृत्ति के अलावा और क्या कारण हो सकता है. 

कहीं विदेशी मुद्रा भंडार पर आफत तो नहीं आने वाली — वैश्वीकरण के इस दौर में विदेशी मुद्रा की बड़ी अहमियत है. खासतौर पर कच्चा तेल खरीदने के लिए और सोना खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा ही चाहिए होती है. अभी विश्लेषक यह चर्चा करने से भी बच रहे हैं कि अमेरिकी डॉलर के साथ-साथ पाउंड स्टर्लिंग के मुकाबले भी अपना रुपया दुबला क्यों होने लगा है. इस बात को एक बार फिर दोहरा लेने में हर्ज़ नहीं है कि तेल और सोना दो ही चीज़ें हैं, जिनका अपने यहां ही उत्पादन बढ़ाने पर हमारा ध्यान नहीं है. और न ही देश में इनकी खपत घटाने की कोई कोशिश है. इन दो चीज़ों को हम जितना ज़्यादा खरीदेंगे, उससे विदेशी मुद्रा की कीमत बढ़ने, यानी अपना रुपया कमज़ोर होने से कौन रोक सकता है.  

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सरकार का क्या है, उसे तो तेल के दाम बढ़ने से और ज़्यादा टैक्स मिल रहा है. प्रदेश सरकारें भी डीज़ल-पेट्रोल के दाम बढ़ने से मन ही मन खुश हैं, क्योंकि वे भी तेल की बिक्री पर प्रतिशत में टैक्स लेती हैं. इसी तरह सोने के आयात और उसकी बढ़ती खपत से सरकारी खजाना भरता है. बस, सरकार को कोई दिक्कत आती है, तो यह कि इससे महंगाई भी बढ़ती है, और गरीब जनता में सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ता है.

हालांकि महंगाई ऐसी चीज़ है कि अगर उसे किसी तरह से जनता को महसूस न करने दिया जाए, तो सरकार कुछ समय के लिए संकट से बची रहती है. फिलहाल सरकार अपने हुनर से महंगाई की यह प्रतीति या चर्चा न होने देने में सफल दिख रही है. सरकार के नज़रिये से देखें, तो रुपये की घटती कीमत और सोने के बढ़ते आयात से उसे अपने सामने कोई प्रत्यक्ष संकट दिखाई नहीं दे रहा है. तो फिर सोने के बढ़ते आयात पर मीडिया में विश्लेषक अगर सक्रिय नहीं दिख रहे हैं, तो हमें आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए. 

सरकारी खर्च का संबंध — यह वाकई एक कारण हो सकता है. डीज़ल-पेटोल के दाम बढ़ने से जो ताबड़तोड़ टैक्स का पैसा सरकार ने उगाहा है, वह भारी-भरकम रकम है. ये लाखों करोड़ रुपये सड़कों के निर्माण के ठेके देने में खर्च हो रहे हैं. मसलन, चार साल में दस लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा तो सड़कों के निर्माण के ठेके देने पर ही खर्च हुए हैं और हो रहे हैं.

देश में लोकसभा चुनाव के साल में सड़कों के ठेकेदार इस समय ताबड़तोड़ तरीके से काम निपटाने पर लगे हैं. कोई भी अनुमान लगा सकता है कि इस काम में खर्च किए जाने वाले लाखों करोड़ रुपये आखिर कुछ लोगों के पास पहुंचे होंगे.

प्रदेशों में भी निर्माण कार्यों पर प्रदेश सरकारों की हैसियत से कई-कई गुना ज़्यादा खर्च हो रहा है. पिछली तिमाही में जीडीपी का आंकड़ा यूं ही थोड़े ही बढ़ा. यानी भवन निर्माण के धंधे में मंदी भले ही हो, लेकिन सड़कों और पुलों के ठेके देने में जो ताबड़तोड़ वृद्धि हुई है,

उससे एक प्रकार से पूंजी निर्माण का ही काम हुआ है. यह पूंजी अगर सोने में तब्दील होकर देश के कुछ लोगों के पास जमा हो रही है, तो इसे देश के एक निश्चित वर्ग के लिए संपन्नता माना जाना चाहिए. अब यह अलग बात है कि इस संपन्नता से गरीब और मध्यम वर्ग के लिए डीज़ल और पेट्रोल के दाम बढ़ते हों, यानी महंगाई भी बढ़ती हो.

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Neal Bhai has been involved in the Bullion and Metals markets since 1998 – he has experience in many areas of the market from researching to trading and has worked in Delhi, India. Mobile No. - 9899900589 and 9582247600

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